Monday 1 June 2015

Ek cup coffee

थके हुए बेजान से दिल में,
थोड़ा दम भरने के लिए. 
दिन के सपनो से नाता  जोड़,
नींद भरी निगाहो से नाता  तोड़ने के लिए,
या फिर कभी यूही 
ज़िन्दगी से होकर खफा,
जिसकी चोस्किया लेकर ही,
एक आशा सी है लौट आती,
वो हैं  पास, मैं और मेरी कॉफ़ी। 



कभी दोस्तों से यूही बातों में,
कभी बरसात के संग चंद  मीठी यादों में,
या फिर कभी कभी यू ही पन्नो के बीच उलझी ज़िन्दगी का मज़ा,
उठाया है मैंने, एक कप कॉफी  में. 

दो पल ज्यादा साथ रहने के बहाने,
कुछ न हो केहनेको फिर भी जाते लम्हों के हवाले,


अकेलेपन  में मानो  जैसे कोई सहारे,
वो है हमेशा पास,
मैं  और मेरी कॉफ़ी. 

दिन तो हैं  बदलते ही रहे हमारे,
वक़्त के पन्नें  तक पलटते रहे. 
ख़ुशी, ग़म हम भी  सब  साथ समेटकर 
 फिर कॉफ़ी के धुएं में उड़ाते रहे 




वो कॉफ़ी के कप सिर्फ प्याले न थे,
ज़िन्दगी के कुछ हिस्से भी थे।
 जिन हिस्सों को हम प्याले में मिलते रहे,
और मीठी कभी कड़वी कॉफ़ी बनाते रहे. 


लम्हे शायद न रहे अब बाकि,
आगे न रहगी साँसें न ज़िन्दगी,
पर  हाँ तमन्ना रहेगी तुम्हारे साथ 
एक कप कॉफ़ी पिनकी,
और  तमाम हिस्सों में  जोड़नेकी. 

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