Saturday 18 July 2015

दास्तान

आंसू जो है बह रहे,
चाहू में उन्हें रोक्लू,
मुस्कराहट तो है सजी
दिल चाहता है की रोलु

उलझनों के बीच है ज़िन्दगी,
टूटी कश्ती किनारे खोजती सी,
यो तो है उलझाने बड़ी
पर अब भी कश्ती में दम है बांकी.

ज़िन्दगी में है उलझाने ऐसी,
जिन्हें सुलझाने का वक़्त नहीं,
कदम तोह है ज़ख़्मी मेरे मगर,
सहलाने को हमदर्द नहीं

लहरों के पर्वतों को देखकर,
डगमगाती है नईया अपनी,
फिर कोने में सितारे को देखकर,
लगता है कोई साथ है सार्थी.


तख़्त पर है स्याही बिछी,
और अल्फाज़ बेख़ौफ़ बह रहे,
गीले कागज़ की दास्तान है मगर,
आंसू न है कुछ कह रहे.

ज़िन्दगी में है उलझाने ऐसी,
जिन्हें सुलझाने का वक़्त नहीं.
कदम तोह है ज़ख़्मी मेरे 
मगर, सहलाने को हमदर्द नही

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